Sunday, June 21, 2009

आज की सती

उसका क्या दिन का निकलना और क्या निशा का आना। सब एक समान ही तो था। सुबह, समय आने पर नींद टूट ही जाती और वह तुरन्त उठ कर पति के पलंग के पास पहुँच कर हाथ से छू कर देखती कि वे कैसे हैं। कैस भी स्पर्श हो, चाहे कोमल, जाहे जिज्ञासु, चाहे नियमानुसार बस स्पर्श ही पति की कोई भी प्रतिक्रिया न पा कर वह खड़ी रह जाती। कभी कभी जब बहुत प्यार भर आता तो वही हाथ उनके माथे पर चला जाता बालों में यूँ ही अंगुलियाँ उलझा कर सोचती और पिछले उन दिनों में चली जाती जब ऐसा कुछ करने की देर होती और पति उसे बाहों में कस कर भर लेते थे। उसकी आँखों की कोर बह चली। तब तक नर्स ने आ कर कुछ जूस व दवाई आदि की ट्रे उसे पकड़ा दी थी। नर्स को जल्द है उसकी ड्यूटी सात बजे खत्म होने को है। वो अब सोचती है ये नर्सें सारी रात जाग कर घर जाएँगी तो इसे नींद तो मिलेगी। यहाँ मैं हूँ ना मेरे जागने का है ना मेरे सोने का है। जिसके लिये यहाँ हूँ जब वे ही नहीं जानते तो क्या है मेरा जीवन? वो मन में आ रहे कमज़ोर विचारों से लड़ने के लिए गलियारे में निकल आई और चाय-काफी सेंटर की ओर बढ़ चली। उसने सोचा चाय के साथ साथ बिस्कुट खा लेगी तो मन बदल जाएगा साथ ही कुछ और लोगों से मिलेगी बात करेगी, उनके रिश्तेदारों या मित्रों के हाल जानेगी तो जी हलका हो जाएगा।
लेकिन उसको ऐसा कुछ नहीं मिला। हर कमरे के सामने से गुज़रते हुए उसे कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ कि लोग सब अकेले ही थे और अपनी अपनी अवधि काट रहे थे। कोई बीमार हो कर कोई उनकी देखभाल करेके। एक कप चाय लेकर वह कमरे की तरफ़ पलट पड़ी। उसने सोचा चलो चल कर नहा लेते हैं। नहाने की बात सोचते ही उसके मन में ये ख्याल आया कि आज तो बच्चों ने आना है। कोई ठीक से कपड़े निकाल कर पहन ले। कमरे में आई पति यूँ ही निश्चल से लेटे थे, जिज्ञासा के कारण उनकी ओर खिंची चली गई, सोचने लगी कि कहीं मैं नहाने जाऊँ इन्हें कुछ चाहिए हुआ तो, उसने एक बार फिर हाथ छुआ। हाथ छूते ही कुछ चेहरे पर हलकी सी हरक हुई, वो खड़ी रह गई, सोचा बस एक बार आँखें खोल कर देख भर लें – चाहे पहचानें या ना पहचानें तो मैं नहाने चली जाऊँ। लेकिन निराशा ही उसका भाग्य था। धीरे से नहाने गई, कपड़े बस यूँ ही कोई भी निकाल लिए। नहाने में उसे गंगा स्नान की याद हो आई, हर-हर गंगे, का मीठा नांद उभर कर सुनाई देने लगा। कुछ पल उसी स्वर में बहती गई। फिर चेतना लौटी। बाहर आई तो पाया कि पति ने अपना हाथ छाती पर रखा है। उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। पास गई अपनी गीले बालों व गालों के साथ सीने पर रखे हाथ के ऊपर टिक सी गई जैसे चलती धड़कनें पहचानने की कोशिश कर रही हो।
फिर वही सामने एक लम्बा दिन और वही कमरे का वातावरण, वही बेजान किताबें वही जाने क्या बोलता टी.वी., वही नर्सों का सिलसिला, वही औपचारिक प्रश्न और वही ना निराशा दिखाने वाले झूठे दिलासे। उसको सब पता है वक़्त आने पर ही उसे व उसके पति को मुक्ति मिल पाएगी। वे उसे पहचानते नहीं, बोलते नहीं, देखते नहीं फिर भी एक आशा के क्षीण से धागे से लटका ये जीवन।
किसी तरह इधर उधर खड़े रह कर और बेवजह लोगों से बातें करके तथा खाने के बड़े सी कमरे में खाने की मेज लगाने में मदद करके और जानते हुए भी दूसरे मरीजों के रिश्तेदारों से उनकी कुशल-क्षेम पूछ कर दिन काटा। घड़ी के काँटे ने चार पर चोट की। उसे पता था पहले लड़का फिर लड़की आएँगे दोनों काम से छूटेंगे तो सीधे इधर आ जाएँगे। लेकिन कोई घर तो है नहीं कि कुछ खाने-पीने का प्रबन्ध कर सके। उसने मन में एक गोला सा उठते हुए अनुभव किया, मातृत्व जागा और असहाय माँ बेचैन हो कर तड़प उठी। उस साईड-टेबल के नीचे के शेल्फ में झाँक कर देखा शायद कुछ मीठा, नमकीन पड़ा हो, आने-जाने वाले जो ले आए थे और वह पूरा कहाँ खा पाई थी।
बच्चे आए माँ पिता को प्यार किया, सबल बने रहे अपनी दिनचर्या भी काट-छांट कर ही सुनाई, घंटे डेढ़ बैठे और जाना ही था सो चले। माँ ने पीछे से बेटी को आवाज़ जो दी, तो कमरे का पूरा व्यक्तित्व ही रोने लगा। उसने बेटी को बस हाथ से छू कर कुछ ऊपरी बात बना कर जाने दिया।
लेकिन उसका मन आज सोचता है उन स्त्रियों के बारे में जो जाने दो सदियों पहले जबरन सती होने पर जीवन मुक्त हो जाती थीं, उनकी पीड़ा, उनके जलने का अहसास करने की कोशिश करने लगी... फिर तुलना करने लगी अपनी जलन से। वे एक बार में जल कर भस्म हो जाती रहीं होंगी लेकिन इसका क्या है न जलती है ना भस्म होती है, ना जागती है न सोती है। इसे! तो लोग क्या कहेंगे? उदास रहे तो लोगों की दया दृष्टि, क्या करे, इतने विकास व चिकित्सा विज्ञान की उन्नति के बाद भी उसका जीवन तो निरन्तर चिता में बैठी स्त्री के जैसा ही तो है। कोई कहीं से आ जाए और उसकी व उसके मृतप्रायः पति की देहों को एक साथ मुक्त कर जाए –उसे तब ना तो जवान बच्चों के सूने भविष्य की चिन्ता सताएगी, ना उसे दया दृष्टि सहनी पड़ेगी, ना झूठे दिलासों में झूलना पड़ेगा, ना बेवजह सूर्योदय से प्रश्न करेगी, ना सूर्यास्त से ईर्ष्या!

3 comments:

  1. सुन्दर रचना के हेतु बधाई ।

    आशा बर्मन

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  2. बहुत मार्मिक् रचना है औरत के दुख भी कितने अजीब होते हैं । उसकी तो हँसी मे भी दर्द छुपा रhहता है कई बार जिन्दा रहते हुये भी मौत से बदतर ज़िन्दग जीती है औरत \ पता नहीं कब औरत सुख का साँस लेगी। बहुत सुन्दर कहानी है शुभकामनायें

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